
आजकल हर तरफ़ ऑर्गेनिक फार्मिंग की बातें हो रही हैं। आपने भी जरूर सुना होगा। असल में ये कोई नया जादू नहीं है, बल्कि हमारी पुरानी देसी खेती का ही थोड़ा सुधरा हुआ रूप है। जहां खेत में DAP या यूरिया नहीं, बल्कि गोबर, कम्पोस्ट और नीम जैसी चीज़ें डाली जाती हैं। मतलब, जैसे हमारे दादा-परदादा खेती करते थे बिना ज़मीन को थकाए, बिना पानी को ज़हर बनाए।
अब लोग धीरे-धीरे समझ रहे हैं कि रासायनिक खेती से ज़मीन तो बेजान हो ही रही थी, साथ में हमारे खाने में भी धीरे-धीरे ज़हर घुल रहा था। ऐसे में ऑर्गेनिक खेती एक सुकून भरा, टिकाऊ और देसी रास्ता लग रहा है।
ऑर्गेनिक खेती का असली मतलब क्या है?
देखिए, ये कोई किताबों वाला नियम नहीं है। इसका असली मकसद है हर चीज़ को सेहतमंद बनाए रखना ज़मीन, पौधे, जानवर और आखिरकार हम इंसान। सोचिए, अगर मिट्टी उपजाऊ रहेगी, तो फसलें भी तंदरुस्त होंगी और खाने वाले भी बीमार नहीं पड़ेंगे।
इसमें नेचर से सीखने की बात है। जैसे पक्षी कीट खा लेते हैं, बारिश ज़मीन को सिंच देती है तो फिर केमिकल डालने की ज़रूरत क्या? ऊपर से इसमें ईमानदारी भी है किसान से लेकर ग्राहक तक सबको बराबरी का हक़ मिलना चाहिए। और ज़मीन की केयर? अरे वही तो समझदारी है आज हम उसे नहीं बिगाड़ेंगे, तभी तो हमारे बच्चे भी कल उस पर खेती कर सकेंगे।
भारत में कैसे करते हैं देसी स्टाइल की ऑर्गेनिक खेती?
सच कहें तो हमारे गांवों में ये ऑर्गेनिक तरीका कोई नया कॉन्सेप्ट नहीं है। हम तो पहले से ही इसी तरीके से खेती कर रहे थे अब थोड़ा और समझदारी से कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए, हम खेत में गोबर की खाद मिलाते हैं, हरी खाद डालते हैं, और फसल चक्र बदलते रहते हैं ताकि मिट्टी थके नहीं। मेरे पड़ोसी तो कहते हैं कि उनका नीम का स्प्रे कीड़ों पर ऐसा असर करता है, जैसे जादू!
फिर एक तरीका है “मिश्रित खेती” का मतलब एक ही खेत में अलग-अलग फसलें लगाना। जैसे सब्ज़ियों के साथ गेंदे का फूल कीड़े भी कन्फ्यूज़ हो जाते हैं और खेत भी सुंदर दिखता है। अगर एक फसल खराब हो जाए तो दूसरी बचा लेती है। खरपतवार हो या कीड़े कोई ज़हर नहीं डालते, या तो खुद निकाल देते हैं या मुर्गियों को छोड़ देते हैं चरने।
और जो भी खाद या टॉनिक डालते हैं, वो सब घर की बनी चीज़ें होती हैं जैसे वर्मी कम्पोस्ट या पंचगव्य। महक थोड़ी झेलनी पड़ती है, पर पौधों को बड़ा मज़ा आता है।
क्यों करें ये मेहनत? क्या फायदा है?
ऑर्गेनिक खेती में फायदा ही फायदा है, बस थोड़ा धैर्य चाहिए। सबसे पहले तो प्रकृति को राहत मिलती है—नदी-नालों में केमिकल नहीं बहता, हवा साफ़ रहती है, और ज़मीन में जान बची रहती है। सूखे मौसम में भी पानी ज्यादा साफ और टिकाऊ रहता है।
और खाने का स्वाद? अरे भाई, शहर में रहने वाला मेरा कजिन कहता है कि “ऑर्गेनिक टमाटर खाओ तो असली टमाटर जैसा टेस्ट आता है, वरना तो प्लास्टिक लगते हैं।”
किसानों के लिए पैसे का भी फायदा है। हर सीजन केमिकल खरीदने की टेंशन नहीं, और ऑर्गेनिक सामान बेचो तो दाम भी अच्छा मिलता है कई बार डबल! हां, मेहनत थोड़ी ज्यादा है, पर लंबे समय में जेब भी भर सकती है।
थोड़ी मुश्किलें भी हैं, लेकिन नामुमकिन नहीं
सच बताएं तो ऑर्गेनिक की राह फूलों से भरी नहीं है। शुरुआत के 2-3 साल फसल कम होती है, तो डर भी लगता है। फिर बाज़ार में ऐसे खरीदार ढूंढना जो सही दाम दे, वो भी एक टेंशन। और जो ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन का चक्कर है—भाईसाहब, कागज़, फीस, नियम… छोटा किसान तो थक ही जाए।
फिर भी कुछ लोग मिसाल बन रहे हैं
लेकिन उम्मीद की किरणें भी हैं। जैसे सिक्किम 2016 में पूरा राज्य ऑर्गेनिक बन गया! आज सब उन्हें खेती के रॉकस्टार की तरह मानते हैं। फिर Navdanya जैसे ग्रुप्स भी हैं जो 16 राज्यों में किसानों को नेचुरल खेती सिखा रहे हैं, और पुराने देसी बीज बचा रहे हैं। मतलब अगर मन से किया जाए, तो ऑर्गेनिक खेती से कमाल हो सकता है।
आखिर में बात सीधी है…
ऑर्गेनिक खेती आज के ज़माने में वही पुरानी देसी समझ है, बस थोड़ी और जागरूकता के साथ। ये तरीका न सिर्फ़ हमारी ज़मीन को फिर से जिंदा कर सकता है, बल्कि आने वाले कल को भी सुरक्षित रख सकता है।
काम थोड़ा ज्यादा है, मगर अब लोग समझ रहे हैं कि अगर आज संभलेंगे तो कल की पीढ़ियों को साफ़ हवा, पानी और खाना मिल सकता है।
तो क्यों न एक छोटा कदम हम भी उठाएं? धीरे-धीरे ही सही, मगर अपने देसी अंदाज़ में।
संबंधित लेख:
No comments yet. Be the first to comment!